सुबोध आचार्य
आजकल जन्म दिन मनाने का फेड चल पड़ा है। जन्म दिन यानी हेप्पी बर्थडे की गूंज सर्वत्र दिखाई पड़ती है। अब तो जन्मदिन का भी व्यवसायीकरण और राजनीतिकरण हो गया है। हर शहर, हर कस्बे के चौक—चौराहों पर हमने अब तक नेताओं, अभिनेताओं के बड़े—बड़े होर्डिंग्स देखे हैं और भविष्य में भी देखते रहेंगे, लेकिन 'भूरा मित्र मंडल' का जन्मदिन फेसबुक पर देखने के बाद मानसपटल पर छा गया और एक अजीबोगरीब संतोष हुआ कि वाह रे भूरा! तूने नेताओं, अभिनेताओं को मात दे दी। भूरा मित्र मंडल, कहां का है, यह तो नहीं पता, लेकिन यह जरूर है कि भूरे मियां इन दिनों फेसबुक पर किसी भी दिन और कभी भी टपक जाते हैं। फेसबुक ही नहीं, पिछले दिनों जब रायपुर जाने का मौका मिला तो वहां भी भूरे मियां छाए हुए थे और एक चौराहे पर जन्मदिन की बधाई स्वीकार कर रहे थे। भूरे मियां के होर्डिंग/फोटो को देखकर ऐसा लगा कि हम आदमियों के मुकाबले जानवर कितने भले होते हैं। वो बोल नहीं सकते। वो घपले—घोटालों के भ्रष्टाचार में आकंठ डूब नहीं सकते। अपने—पराये, नाते—रिश्ते की पहचान भूल चुकी इंसान जात इन मूक जानवरों से भी सीख नहीं लेना चाहती।
ईमानदारी, वफादारी और सामाजिकता में वो हमसे बहुत आगे होते हैं, लेकिन हम उन्हें हीन भावना से देखते हैं और सम्मान नहीं देते। वो लोग प्रशंसा के पात्र हैं, जिन्होंने भूरा का होर्डिंग लगाकर यह दर्शा दिया कि नेताओं से ज्यादा उन्हें इंसानों से प्यार है। मेरी सोसायटी में भी एक भूरा है, जो न जाने कितने साल पहले कहीं से आकर बस गया। धीरे—धीरे पलकर बड़ा हो गया, लेकिन एक—दूसरे को नीचे दिखाने की होड़ में ये भूरा एक मोहरा साबित हुआ। कतिपय अति सभ्य लोगों को उसका कॉलोनी में रहना नागवार गुजरा और उस मूक प्राणी के पीछे हाथ धोकर पड़ गए कि इसे यहां से बाहर निकाल दिया जाए। चूंकि किसी ने उसे पाला नहीं था, इसलिए उसे बचाने की कोशिश में कोई आगे नहीं आया। जो आगे आए, वो भी शतरंज की बिसात पर बिछे थे। भूरा नाक का बाल हो गया। भगाने की मुहीम में जुटे लोगों ने उसे अपने स्वाभिमान से जोड़ लिया और फिर शुरु हुई उसे भगाने की मुहीम, कोई उसे मार कर फेंकना चाहता था तो कोई जहर देने की बात करता था। कोई थाने में रिपोर्ट लिखवाकर तो कोई नगर पालिका में शिकायत कर उसे उठवाना चाहता था। आखिरकार, भूरा को बोरे में बंद कर कार से 16 किलोमीटर दूर छोड़ दिया गया, किंतु भूरा तो भूरा निकला। वो इनके आगे कहां हार मानने वाला था। वो 16 किलोमीटर की दूरी चार दिन में तय करने के बाद आखिरकार सोसायटी में पहुंच ही गया। उसने न किसी से पता पूछा, न किसी की मदद ली। अब आप खुद सोचिए कि भूरा महान है या हमारी इंसान जात।
वापसी के बाद भूरा कातर निगाहों से देख रहा था कि मैंने इतने साल तुम्हारी रखवाली में बिता दिए। सबके बच्चों को बड़ा होते देखा। पूंछ भी खिंचवाईं। दुत्कार भी सही पर मैंने तो कभी पलटवार नहीं किया। हतप्रभ हो वह सोच रहा था कि आखिर ये आफत क्यों आन पड़ी? किसी ने बेहोश करने के तरीके आजमाए तो किसी ने डण्डे से मारा, लेकिन भूरा भी भूरा था, वो टस से मस नहीं हुआ। लेकिन, कब तक? एक दिन दांव चल गया और बोरे में बंद कर बाहर छोड़ दिया गया। दो—तीन दिनों तक तो चर्चा का माहौल रहा, फिर सब ठंडा हो गया। जो चाहते थे कि भूरा नहीं रहे, वे हंस—मुस्करा रहे थे, जैसे उन्होंने मैदान मार लिया हो। जो चाहते थे कि भूरा रहे, वे मायूस ऐसे थे, जैसे कोई उनका अपना बिछड़ गया हो, लेकिन कोई यह नहीं समझ पाया कि भूरा तो इंसानों के अहम् के खेल में एक मोहरा था। मोहरा पीट गया, लेकिन अभी चार ही दिन बीते थे कि तड़के भूरा वापस आ गया। सुबह उसे देख हर कोई चकित था। वो भी पूंछ हिला—हिलाकर सबके दरवाजे पर अपनी वापसी की आमद दर्ज करा रहा था। हम इंसानों की इंसानियत, भूरा की वफादारी के आगे हार गई थी। वो बंद जुबां से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था और कह रहा था कि मुझे मोहरा मत बनाओ। मैं अभी भी कॉलोनी का वजीर हूं। भूरा को खदेड़ने, उसके वापस आने का घटनाक्रम, हमारे लिए एक सबक है कि आज भी आदमी से ज्यादा वफादार और ईमानदार जानवर हैं।

आजकल जन्म दिन मनाने का फेड चल पड़ा है। जन्म दिन यानी हेप्पी बर्थडे की गूंज सर्वत्र दिखाई पड़ती है। अब तो जन्मदिन का भी व्यवसायीकरण और राजनीतिकरण हो गया है। हर शहर, हर कस्बे के चौक—चौराहों पर हमने अब तक नेताओं, अभिनेताओं के बड़े—बड़े होर्डिंग्स देखे हैं और भविष्य में भी देखते रहेंगे, लेकिन 'भूरा मित्र मंडल' का जन्मदिन फेसबुक पर देखने के बाद मानसपटल पर छा गया और एक अजीबोगरीब संतोष हुआ कि वाह रे भूरा! तूने नेताओं, अभिनेताओं को मात दे दी। भूरा मित्र मंडल, कहां का है, यह तो नहीं पता, लेकिन यह जरूर है कि भूरे मियां इन दिनों फेसबुक पर किसी भी दिन और कभी भी टपक जाते हैं। फेसबुक ही नहीं, पिछले दिनों जब रायपुर जाने का मौका मिला तो वहां भी भूरे मियां छाए हुए थे और एक चौराहे पर जन्मदिन की बधाई स्वीकार कर रहे थे। भूरे मियां के होर्डिंग/फोटो को देखकर ऐसा लगा कि हम आदमियों के मुकाबले जानवर कितने भले होते हैं। वो बोल नहीं सकते। वो घपले—घोटालों के भ्रष्टाचार में आकंठ डूब नहीं सकते। अपने—पराये, नाते—रिश्ते की पहचान भूल चुकी इंसान जात इन मूक जानवरों से भी सीख नहीं लेना चाहती।
ईमानदारी, वफादारी और सामाजिकता में वो हमसे बहुत आगे होते हैं, लेकिन हम उन्हें हीन भावना से देखते हैं और सम्मान नहीं देते। वो लोग प्रशंसा के पात्र हैं, जिन्होंने भूरा का होर्डिंग लगाकर यह दर्शा दिया कि नेताओं से ज्यादा उन्हें इंसानों से प्यार है। मेरी सोसायटी में भी एक भूरा है, जो न जाने कितने साल पहले कहीं से आकर बस गया। धीरे—धीरे पलकर बड़ा हो गया, लेकिन एक—दूसरे को नीचे दिखाने की होड़ में ये भूरा एक मोहरा साबित हुआ। कतिपय अति सभ्य लोगों को उसका कॉलोनी में रहना नागवार गुजरा और उस मूक प्राणी के पीछे हाथ धोकर पड़ गए कि इसे यहां से बाहर निकाल दिया जाए। चूंकि किसी ने उसे पाला नहीं था, इसलिए उसे बचाने की कोशिश में कोई आगे नहीं आया। जो आगे आए, वो भी शतरंज की बिसात पर बिछे थे। भूरा नाक का बाल हो गया। भगाने की मुहीम में जुटे लोगों ने उसे अपने स्वाभिमान से जोड़ लिया और फिर शुरु हुई उसे भगाने की मुहीम, कोई उसे मार कर फेंकना चाहता था तो कोई जहर देने की बात करता था। कोई थाने में रिपोर्ट लिखवाकर तो कोई नगर पालिका में शिकायत कर उसे उठवाना चाहता था। आखिरकार, भूरा को बोरे में बंद कर कार से 16 किलोमीटर दूर छोड़ दिया गया, किंतु भूरा तो भूरा निकला। वो इनके आगे कहां हार मानने वाला था। वो 16 किलोमीटर की दूरी चार दिन में तय करने के बाद आखिरकार सोसायटी में पहुंच ही गया। उसने न किसी से पता पूछा, न किसी की मदद ली। अब आप खुद सोचिए कि भूरा महान है या हमारी इंसान जात।
वापसी के बाद भूरा कातर निगाहों से देख रहा था कि मैंने इतने साल तुम्हारी रखवाली में बिता दिए। सबके बच्चों को बड़ा होते देखा। पूंछ भी खिंचवाईं। दुत्कार भी सही पर मैंने तो कभी पलटवार नहीं किया। हतप्रभ हो वह सोच रहा था कि आखिर ये आफत क्यों आन पड़ी? किसी ने बेहोश करने के तरीके आजमाए तो किसी ने डण्डे से मारा, लेकिन भूरा भी भूरा था, वो टस से मस नहीं हुआ। लेकिन, कब तक? एक दिन दांव चल गया और बोरे में बंद कर बाहर छोड़ दिया गया। दो—तीन दिनों तक तो चर्चा का माहौल रहा, फिर सब ठंडा हो गया। जो चाहते थे कि भूरा नहीं रहे, वे हंस—मुस्करा रहे थे, जैसे उन्होंने मैदान मार लिया हो। जो चाहते थे कि भूरा रहे, वे मायूस ऐसे थे, जैसे कोई उनका अपना बिछड़ गया हो, लेकिन कोई यह नहीं समझ पाया कि भूरा तो इंसानों के अहम् के खेल में एक मोहरा था। मोहरा पीट गया, लेकिन अभी चार ही दिन बीते थे कि तड़के भूरा वापस आ गया। सुबह उसे देख हर कोई चकित था। वो भी पूंछ हिला—हिलाकर सबके दरवाजे पर अपनी वापसी की आमद दर्ज करा रहा था। हम इंसानों की इंसानियत, भूरा की वफादारी के आगे हार गई थी। वो बंद जुबां से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था और कह रहा था कि मुझे मोहरा मत बनाओ। मैं अभी भी कॉलोनी का वजीर हूं। भूरा को खदेड़ने, उसके वापस आने का घटनाक्रम, हमारे लिए एक सबक है कि आज भी आदमी से ज्यादा वफादार और ईमानदार जानवर हैं।
