श्वान पालनः कुछ आवष्यक बातें

डाॅ. आरके बघेरवाल
आधुनिक परिवेष में कुत्तापालन दिन-प्रतिदिन एक अतिरिक्त शौक के रूप में विकसित होता जा रहा है। विज्ञान के इस युग में मनुष्य की विभिन्न भौतिक विलासिता की वस्तुओं के अतिरिक्त संपन्न लोग कुत्तापालन को अपनी शान, शौकत व दिखावट का एक महत्वपूर्ण अंग मानने लगे हैं। कुत्तापालन में कौन-कौन सी आवष्यक बातों की विस्तृत जानकारी आवष्यक है, इसके पहले यह बात महत्वपूर्ण अधिक होगी कि किस नस्ल का कुत्ता पाला जाए। सही तौर पर यह व्यक्तिगत रूचि, आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि किस उद्देष्य की पूर्ति के लिए इसका उपयोग किया जाता है। संपन्न परिवारों में प्रायः बडी नस्ल के कुत्ते जैसे अल्सेषियन (जर्मन शेफर्ड), डाॅबरमैन का उपयोग एक ओर जहां संपत्ति या पारिवारिक सुरक्षा के लिए किया जाता है, वहीं दूसरी ओर छोटी नस्ल के कुत्ते जैसे पामेरियन, एप्सो आदि का उपयोग परिवार में खासकर बच्चों के लिए मनोरंजन के स्रोत के रूप में होता है।

याद रहे किसी भी नस्ल का कुत्ता या पप्स 5 सप्ताह की उम्र से कम का नहीं खरीदें, क्योंकि इससे कम उम्र के पिल्लों में संक्रामक बीमारियां तेजी से फै लती है। और, साथ ही अचानक मृत्यु होने की आषंका अधिक रहती है। अच्छा हो, 6 से 7 सप्ताह की उम्र के ही पप्स खरीदें। कारण कि इस उम्र में ही स्वास्थ्य का सही परीक्षण व मापदंड हो पाता है, इस हेतु पषु चिकित्सक की राय अवष्य लें। बडी नस्ल के कुत्तों को दैनिक कसरत की अधिक आवष्यकता होती है। वहीं दूसरी ओर छोटी नस्ल को कम कसरत। लेकिन प्रतिदिन अधि देखरेख, साथ ही बडे व घने बाल होने के कारण कंघी की आवष्यकता होती है।

पप्स की नस्ल का चुनाव व खरीदे जाने के बाद निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिएः-
1.    पप्स का आहार (फीडिंग) प्रतिदिन एक नियत समय पर करना चाहिए। आहार ताजा व हल्का कुनकुना पानी देना चाहिए। पप्स जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर खरीदकर ले जाए जाते हैं तो वातावरण में परिवर्तन के कारण शुरू में आहार के प्रति अरूचि दिखाते हैं। अतः किसी भी प्रकार की चिंता न कर पप्स को अपने हाल पर छोड देना चाहिए। एक सप्ताह बाद पप्स प्रायः साधारणतः आहार लेना प्रारंभ कर देते हैं। केवल विषेष परिस्थितियों, जैसे किसी बीमारी के लक्षण होने पर ही पषु चिकित्सक की राय लेना चाहिए। प्रारंभ में (5-6 सप्ताह की उम्र में) 3-4 घंटे के अंतराल में दिन में 4 बार आहार दें। 2 सप्ताह बाद दिन में तीन बार आहार देना उनके स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयुक्त होता है। इस दौरान गेहूं को कुचलकर या मोटा आटा, पीसकर दूध में उबालकर देते हैं।
2.    हड्डी का मुडना (रिकेट) बीमारी से बचाव व हड्डियां, दांतों व मांसपेषियों के त्वरित विकास के लिए प्रारंभ में करीबन 2 सप्ताह तक (आष्टो कैल्षियम) एवं विटामिन्स की दिन में 3 बार उचित मात्रा देना चाहिए।
3.    तीन से छह माह की उम्र में दूध की मात्रा कमकर चपाती, चावल, ब्रेड व उबले अण्डे व सब्जियां देना चाहिए। यदि कुत्ता मांसाहारी आहार में अधिक रूचि दिखाता है उसे दिन में एक बार मांस के टुकडे अवष्य देना चाहिए। ठोस आहार के साथ तरल आहार जैसे सूप कभी न दें।
4.    प्रत्येक आहार के दौरान कुछ प्रषिक्षण जैसे-बैठना, खडे होना, दौडना, आदि कुत्तापालक को स्वयं पहले कर, कुत्ते द्वारा उसका अनुकरण करने का अभ्यास प्रतिदिन करना चाहिए।
5.    कुत्तों को प्रतिदिन नहलाना हानिकारक होता है। केवल प्रतिदिन कंघी (बषिंग) करना चाहिए।
6.    कृमिनाषक दवा की पहली खुराक 6 सप्ताह की उम्र में देना चाहिए। तत्पष्चात् प्रत्येक 21 दिन के अंतराल से 5 माह की उम्र तक देना चाहिए तथा बाद में प्रत्येक चार माह के अंतराल से आजन्म तक कृमिनाषक दवा देने से प्रायः सभी प्रकार के कृमियों खासकर फीता कृमि, गोल कृमि व हक कृमि के दुष्प्रभावों से पूर्णतया बचे रहते हैं। डिस्टेम्पर, हीपेटाइटिस व लेप्टोस्पाईरोसिस जैसी खतरनाक व संक्रामक बीमारियों से बचाव हेतु डी.एच.एल. का पहला टीका 7 से 9 सप्ताह की उम्र में, दूसरा या बूस्टर टीका 21 दिन बाद लगाएं। तत्पष्चात् प्रतिवर्ष टीकाकरण करवाना चाहिए। अच्छा हो, टीके के 1 माह के पहले कुत्ते को कृमिनाषक दवा की एक खुराक अवष्य देना चाहिए। इसके अतिरिक्त पागलपन (रेबीज या हाईफोड्रोबिया ) कुत्ते की सबसे खतरनाक बीमारी है। जिसका लोक स्वास्थ्य की दृष्टि से बडा महत्व होता है। इस रोग से बचाव के लिए एण्टीरेबिक टीका 4 से 5 माह की उम्र में मांसपेषियों में लगाया जाता है। 6 माह बाद दूसरा टीका तत्पष्चात् प्रतिवर्ष लगाते हैं। टीका न लगाने की दषा में कुत्ते द्वारा किसी अन्य पषु, कुत्ते व मनुष्य को काटने पर उन्हें भी उस रोग से संक्रमित कर लेते हैं। अतः इस बीमारी का टीकाकरण नितांत आवष्यक है। यदि उक्त आवष्यक बातों को कुत्ते की प्रारंभिक अवस्था में अमल में लाया जाए और एक बार यदि कुत्ता 6-7 माह की उम्र पार कर लेता है तो उसके बीमार होने व मरने की आषंका बहुत कम होती है।
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