स्वाति जानी
कुत्ते मनुष्य के परम मित्र माने जाते हैं, कितने ही मनुष्य कुत्तों को बहुत प्यार करते हैं। प्राणों से प्यारा मानकर उनकी देखभाल करते हैं। कितने ही धनवान उनके कुत्तों को लाखों रुपयों का वारिस बना गए। तब भी इस अबोध प्राणी से सभी व्यक्ति अच्छा व्यवहार नहीं करते। घोडे की तरह कुत्तों का भी, स्वयं के शौक के लिए मनुष्य उनका आश्चर्यजनक उपयोग करते हैं। कुत्तों की रेस, खान युद्ध (डाॅग फाइट) जैसे खेलों को शौक की उपज ही गिना जा सकता है। कुछ दशक पूर्व कुत्तों की टोलियों का उपयोग राजा-महाराजा शिकार के लिए करते थे। शिकार के लिए जाते समय कुत्तों की पूरी फौज लेकर निकल पडते। जंगल में खरगोश और लकडबग्घों का शिकार करने जाते, तब कुत्तों को साथ रखते। भावनगर के महाराजा कृष्णकुमार तो 150 शिकारी कुत्तों का काफिला लेकर शिकार पर जाते थे, तब स्वयं घोडे पर सवार होते और उनके अंगरक्षक कुत्तों के पीछे पैदल दौडते। जो कुत्ते लोमडी, लकडबग्घा या खरगोश का शिकार करने में राजा की मदद करते उनको रात को मुर्गी या खरगोश का ताजा मांस खाने को मिलता।

शिकार के पश्चात राजा-रजवाडों में कुत्तों का दूसरा उपयोग भी होता। फुरसत के समय में राजा कुत्तों की रेस भी आयोजित करते। बडे नगर सेठ भी यह रेस देखने आते और उसमें जुआ भी खेला जाता। इंग्लैंड की रानी भी कुत्तों की रेस में बहुत रूचि लेती थीं। रशिया यानी रूस में भी रानियां कुत्तों की रेस करती थीं। उन पर जुआं भी वे खेलती थीं। साम्यवाद आने के बाद रशिया में से तो डाॅग रेस का नामोनिशान मिट गया। इतना ही नहीं, साम्यवादी सत्ताधीशों ने बोरझोई नाम के इन शिकारी कुत्तों की नस्ल को ही नष्ट कर दिया था। यद्यपि यूरोप, अमेरिका में आज भी कुत्तों की रेस पर लाखों-करोडों का जुआ खेला जाता है। घोडे की रेस में जो देखने को मिलता है, वैसा ही उतार-चढाव, प्रपंच, दावपेंच डाॅग रेस में भी है। राजशाही लुप्त होती गई, वैसा ही बादशाहों का शिकारी शौक भी जाता रहा परंतु मनोरंजन के लिए ‘कुत्ते दौडाने’ का खेल अभी बंद नहीं हुआ। पहले ग्रीक खरगोश या लोमडी को मैदान में दौडाकर उसके पीछे शिकारी कुत्तों को दौडाते थे। अंग्रेजी में इस खेल को कोर्सिंग कहते हैं।
कोर्सिंग के इस खेल को इंग्लैंड में अच्छा मैदान मिल गया। 1776 में तो वहां कोर्सिंग क्लब भी स्थापित हो चुका था। कोर्सिंग का यह खेल लोकप्रिय बनने के बाद पश्चात खरगोश और लोमडियों की संख्या तेजी से कम होने लगी। इंग्लैंड में इस खेल पर प्रतिबंध लगाया गया। यद्यपि लोमडी या खरगोश पकडकर लाने वाले के हाथ काट डालने की कठोर सजा होने पर भी यह शौक जारी रहा। आज कोर्सिंग के खेल में कुत्ते दौडाने का खेल खेला जाता है, परंतु उसमें वास्तविक खरगोश के बदले मेकेनिकल खरगोश को दौडाया जाता है। नकली खरगोश को पकडने के लिए छह-सात कुत्ते उत्साहपूर्वक दौडाते हैं और अलबत्ता ऐसी रेस में दौडने वाले वाले कुत्तों को तालीम देने के लिए आज भी जीवित खरगोश का प्रयोग किया जाता है। घुडदौड की तरह कुत्तों की रेस भी गोलाकार मैदान में होती है। एक स्पर्धा शुरू हो उसके पहले प्रत्येक कुत्ते का नाम, उसके मालिक का नाम, सरनेम, कुत्ते की उम्र, वजन, उसकी औलाद वगैराह की जानकारी दी जाती है। घोडे की तरह ही कुत्ते भी रेस में दौडें, उसके पहले उनको बाॅक्स में खडा किया जाता है। समय होते ही यांत्रिक खरगोश को पहले छोडा जाता है फिर उसके बाद सब बाॅक्स खुलते ही कुत्ते उनके पीछे दौडने लगते हैं। इंग्लैंड अमेरिका में तो ऐसे लोग भी हैं, जिनको की घोडों की तुलना में कुत्तों की दौड में ज्यादा रूचि है। घोडों की रेस तो दिन में ही आयोजित की जाती है, जबकि कुत्तों की रेस तो 12 सौ मीटर जितना छोटा मैदान होने से यह रेस रात में भी आयोजित की जा सकती है। इंग्लैंड में अनगिनत क्लब रात को डाॅग रेस आयोजित करते हैं।
उसमें महिलाएं भी रेस देखने आती हैं। पूरा मैदान रोशनी से जगमगाता हो तो कुत्तों की रेस में भी घुडदौड जितना ही जुआ खेला जाता है। ब्रिटेन में 12 हजार रेस के कुत्तों की विविध स्पर्धा देखने प्रतिवर्ष 1 करोड दर्शक 9 सौ करोड रुपयों का जुआ खेलते हैं। अमेरिका में कुत्तों की संख्या ब्रिटेन से डेढ गुना अधिक है। जुए का आंकडा भी एक हजार करोड रुपए से भी ज्यादा हो जाता है। अमेरिका ने कुत्तों की रेस को राष्ट़व्यापी बनाने के लिए सेटेलाइट टीवी सिस्टम से रेस को कवरेज देने का निश्चय किया है। एरीजोना के किनिक्स ग्रेहाउंड पार्क में तो डाॅग रेस रोजमर्रा का खेल बन गया है। रेस के समय के पहले लोग स्टेडियम के ग्राउंड में इकट्ठा हो जाते हैं। इस पेवेलियन में बैठने की व्यवस्था होटल के रूम जैसी होती है। एक बडा ओपन रेस्तरां ही समझ लो। प्रत्येक टेबल के पास एक टीवी माॅनिटर लगा होता है।
अतः रेस चालू हो तब मैदान की तरफ झांक-झांक कर देखने की आवश्यकता नहीं रहती। साथ ही टेबल पर पडे नाश्ते पर भी सभी हाथ साफ करते चलते हैं। रेस में कौन-सा कुत्ता जीतेगा, किस पर शर्त लगाई जाए, यह निश्चिज करने के लिए प्रत्येक कुत्ते ने पहले प्रत्येक कुत्ते ने जिस रेस में भाग लिया है, क्लब के सदस्य स्पर्धा शुरू होने के पहले ही ऐसी कैसेट देखने के पश्चात किस पर पैसा लगाना, यह निश्चित करते हैं। अमेरिका के 15 राज्यों में ऐसी 51 ग्रेहाउंड रेस क्लब हैं। कुत्ता 12 महीने का हो, तभी रेस में दौडने लायक होता है। इसके पहले अच्छी औलाद के कुत्ते को रेस के योग्य बनाने के लिए मालिकों को उनकी बहुत ही देखभाल करनी पडती है। रोजाना रुपए खर्च कर कुत्तों को जीवति खरगोश के पीछे दौडाकर उनके लिए अच्छी खुराक का बंदोबस्त किया जाता है। रेस में प्रथम आने वाले कुत्ते तो कमाऊ बेटे गिने जाने से उनके मालिक ऐसे कुत्तों को बहुत लाड करते हैं। रात को सोते समय भी कुत्तों को पहलू में लेकर सो जाते हैं। नहलाते हैं, पर स्वयं के हाथ से ही। उनके साथ प्यार की भाषा में बात भी करते हैं। कितने तो कुत्तों के पास स्वयं के दुखडे रोते हैं। जैसे, कि कुत्ता यह सब बात समझकर मन स्थिर कर रेस जीत ही जाएगा।
रेस जीत जाए, पहला नंबर आए, ऐसे कुत्ते के मालिक को कम से कम दो-तीन लाख रुपए इनाम मिलता है। इस रकम का बडा हिस्सा भी अच्छी नस्ल के नए कुत्ते खरीदने और उनको रेस की तालीम देने में ही खप जाता है। बहुत से मालिक तो कुत्तों को हार्मोंस का इंजेक्शन देकर रेस में जीता देने की पैरवी करते हैं। इस तरीके से कुत्ता जीते तो भी सेक्स के लिए नाकाम हो जाता है। यूं भी रेस में भाग लेने वाले कुत्तों की सेक्स क्षमता पांचेक वर्ष में खत्म हो जाती है। बहुत से मालिक तो कुत्ता लगातार तीन से अधिक बार रेस हारता है तो उसको जहर देकर मार डालते हैं, जिससे उसके भरण-पोषण का खर्च बच जाता है। यूं भी घोडे की तुलना में कुत्तों को छूत के रोग जल्दी लग जाते हैं। ग्रेहाउंड कुत्ते की ऊंचाई में 30 से इंच और सामान्य रूप से 60 से 75 पौंड के होते हैं। एक समय उत्तर भारत के रामपुरी कुत्तों के द्वारा इंग्लैंड की कुत्यिों से उत्तम प्रकार के कुत्तों की नस्ल पैदा करवाई जाती थी। वर्तमान में रेस के लिए ग्रेहाउंड के नाम से जाना जाने वाला ब्रिटिश शिकारी कुत्तों को ही सब पहले पसंद करते हैं। कुत्ते ज्यादा से ज्यादा एक घंटे में 70 किलोमीटर का सफर तय करते हैं।
कुत्ते मनुष्य के परम मित्र माने जाते हैं, कितने ही मनुष्य कुत्तों को बहुत प्यार करते हैं। प्राणों से प्यारा मानकर उनकी देखभाल करते हैं। कितने ही धनवान उनके कुत्तों को लाखों रुपयों का वारिस बना गए। तब भी इस अबोध प्राणी से सभी व्यक्ति अच्छा व्यवहार नहीं करते। घोडे की तरह कुत्तों का भी, स्वयं के शौक के लिए मनुष्य उनका आश्चर्यजनक उपयोग करते हैं। कुत्तों की रेस, खान युद्ध (डाॅग फाइट) जैसे खेलों को शौक की उपज ही गिना जा सकता है। कुछ दशक पूर्व कुत्तों की टोलियों का उपयोग राजा-महाराजा शिकार के लिए करते थे। शिकार के लिए जाते समय कुत्तों की पूरी फौज लेकर निकल पडते। जंगल में खरगोश और लकडबग्घों का शिकार करने जाते, तब कुत्तों को साथ रखते। भावनगर के महाराजा कृष्णकुमार तो 150 शिकारी कुत्तों का काफिला लेकर शिकार पर जाते थे, तब स्वयं घोडे पर सवार होते और उनके अंगरक्षक कुत्तों के पीछे पैदल दौडते। जो कुत्ते लोमडी, लकडबग्घा या खरगोश का शिकार करने में राजा की मदद करते उनको रात को मुर्गी या खरगोश का ताजा मांस खाने को मिलता।

शिकार के पश्चात राजा-रजवाडों में कुत्तों का दूसरा उपयोग भी होता। फुरसत के समय में राजा कुत्तों की रेस भी आयोजित करते। बडे नगर सेठ भी यह रेस देखने आते और उसमें जुआ भी खेला जाता। इंग्लैंड की रानी भी कुत्तों की रेस में बहुत रूचि लेती थीं। रशिया यानी रूस में भी रानियां कुत्तों की रेस करती थीं। उन पर जुआं भी वे खेलती थीं। साम्यवाद आने के बाद रशिया में से तो डाॅग रेस का नामोनिशान मिट गया। इतना ही नहीं, साम्यवादी सत्ताधीशों ने बोरझोई नाम के इन शिकारी कुत्तों की नस्ल को ही नष्ट कर दिया था। यद्यपि यूरोप, अमेरिका में आज भी कुत्तों की रेस पर लाखों-करोडों का जुआ खेला जाता है। घोडे की रेस में जो देखने को मिलता है, वैसा ही उतार-चढाव, प्रपंच, दावपेंच डाॅग रेस में भी है। राजशाही लुप्त होती गई, वैसा ही बादशाहों का शिकारी शौक भी जाता रहा परंतु मनोरंजन के लिए ‘कुत्ते दौडाने’ का खेल अभी बंद नहीं हुआ। पहले ग्रीक खरगोश या लोमडी को मैदान में दौडाकर उसके पीछे शिकारी कुत्तों को दौडाते थे। अंग्रेजी में इस खेल को कोर्सिंग कहते हैं।
कोर्सिंग के इस खेल को इंग्लैंड में अच्छा मैदान मिल गया। 1776 में तो वहां कोर्सिंग क्लब भी स्थापित हो चुका था। कोर्सिंग का यह खेल लोकप्रिय बनने के बाद पश्चात खरगोश और लोमडियों की संख्या तेजी से कम होने लगी। इंग्लैंड में इस खेल पर प्रतिबंध लगाया गया। यद्यपि लोमडी या खरगोश पकडकर लाने वाले के हाथ काट डालने की कठोर सजा होने पर भी यह शौक जारी रहा। आज कोर्सिंग के खेल में कुत्ते दौडाने का खेल खेला जाता है, परंतु उसमें वास्तविक खरगोश के बदले मेकेनिकल खरगोश को दौडाया जाता है। नकली खरगोश को पकडने के लिए छह-सात कुत्ते उत्साहपूर्वक दौडाते हैं और अलबत्ता ऐसी रेस में दौडने वाले वाले कुत्तों को तालीम देने के लिए आज भी जीवित खरगोश का प्रयोग किया जाता है। घुडदौड की तरह कुत्तों की रेस भी गोलाकार मैदान में होती है। एक स्पर्धा शुरू हो उसके पहले प्रत्येक कुत्ते का नाम, उसके मालिक का नाम, सरनेम, कुत्ते की उम्र, वजन, उसकी औलाद वगैराह की जानकारी दी जाती है। घोडे की तरह ही कुत्ते भी रेस में दौडें, उसके पहले उनको बाॅक्स में खडा किया जाता है। समय होते ही यांत्रिक खरगोश को पहले छोडा जाता है फिर उसके बाद सब बाॅक्स खुलते ही कुत्ते उनके पीछे दौडने लगते हैं। इंग्लैंड अमेरिका में तो ऐसे लोग भी हैं, जिनको की घोडों की तुलना में कुत्तों की दौड में ज्यादा रूचि है। घोडों की रेस तो दिन में ही आयोजित की जाती है, जबकि कुत्तों की रेस तो 12 सौ मीटर जितना छोटा मैदान होने से यह रेस रात में भी आयोजित की जा सकती है। इंग्लैंड में अनगिनत क्लब रात को डाॅग रेस आयोजित करते हैं।
उसमें महिलाएं भी रेस देखने आती हैं। पूरा मैदान रोशनी से जगमगाता हो तो कुत्तों की रेस में भी घुडदौड जितना ही जुआ खेला जाता है। ब्रिटेन में 12 हजार रेस के कुत्तों की विविध स्पर्धा देखने प्रतिवर्ष 1 करोड दर्शक 9 सौ करोड रुपयों का जुआ खेलते हैं। अमेरिका में कुत्तों की संख्या ब्रिटेन से डेढ गुना अधिक है। जुए का आंकडा भी एक हजार करोड रुपए से भी ज्यादा हो जाता है। अमेरिका ने कुत्तों की रेस को राष्ट़व्यापी बनाने के लिए सेटेलाइट टीवी सिस्टम से रेस को कवरेज देने का निश्चय किया है। एरीजोना के किनिक्स ग्रेहाउंड पार्क में तो डाॅग रेस रोजमर्रा का खेल बन गया है। रेस के समय के पहले लोग स्टेडियम के ग्राउंड में इकट्ठा हो जाते हैं। इस पेवेलियन में बैठने की व्यवस्था होटल के रूम जैसी होती है। एक बडा ओपन रेस्तरां ही समझ लो। प्रत्येक टेबल के पास एक टीवी माॅनिटर लगा होता है।
अतः रेस चालू हो तब मैदान की तरफ झांक-झांक कर देखने की आवश्यकता नहीं रहती। साथ ही टेबल पर पडे नाश्ते पर भी सभी हाथ साफ करते चलते हैं। रेस में कौन-सा कुत्ता जीतेगा, किस पर शर्त लगाई जाए, यह निश्चिज करने के लिए प्रत्येक कुत्ते ने पहले प्रत्येक कुत्ते ने जिस रेस में भाग लिया है, क्लब के सदस्य स्पर्धा शुरू होने के पहले ही ऐसी कैसेट देखने के पश्चात किस पर पैसा लगाना, यह निश्चित करते हैं। अमेरिका के 15 राज्यों में ऐसी 51 ग्रेहाउंड रेस क्लब हैं। कुत्ता 12 महीने का हो, तभी रेस में दौडने लायक होता है। इसके पहले अच्छी औलाद के कुत्ते को रेस के योग्य बनाने के लिए मालिकों को उनकी बहुत ही देखभाल करनी पडती है। रोजाना रुपए खर्च कर कुत्तों को जीवति खरगोश के पीछे दौडाकर उनके लिए अच्छी खुराक का बंदोबस्त किया जाता है। रेस में प्रथम आने वाले कुत्ते तो कमाऊ बेटे गिने जाने से उनके मालिक ऐसे कुत्तों को बहुत लाड करते हैं। रात को सोते समय भी कुत्तों को पहलू में लेकर सो जाते हैं। नहलाते हैं, पर स्वयं के हाथ से ही। उनके साथ प्यार की भाषा में बात भी करते हैं। कितने तो कुत्तों के पास स्वयं के दुखडे रोते हैं। जैसे, कि कुत्ता यह सब बात समझकर मन स्थिर कर रेस जीत ही जाएगा।
रेस जीत जाए, पहला नंबर आए, ऐसे कुत्ते के मालिक को कम से कम दो-तीन लाख रुपए इनाम मिलता है। इस रकम का बडा हिस्सा भी अच्छी नस्ल के नए कुत्ते खरीदने और उनको रेस की तालीम देने में ही खप जाता है। बहुत से मालिक तो कुत्तों को हार्मोंस का इंजेक्शन देकर रेस में जीता देने की पैरवी करते हैं। इस तरीके से कुत्ता जीते तो भी सेक्स के लिए नाकाम हो जाता है। यूं भी रेस में भाग लेने वाले कुत्तों की सेक्स क्षमता पांचेक वर्ष में खत्म हो जाती है। बहुत से मालिक तो कुत्ता लगातार तीन से अधिक बार रेस हारता है तो उसको जहर देकर मार डालते हैं, जिससे उसके भरण-पोषण का खर्च बच जाता है। यूं भी घोडे की तुलना में कुत्तों को छूत के रोग जल्दी लग जाते हैं। ग्रेहाउंड कुत्ते की ऊंचाई में 30 से इंच और सामान्य रूप से 60 से 75 पौंड के होते हैं। एक समय उत्तर भारत के रामपुरी कुत्तों के द्वारा इंग्लैंड की कुत्यिों से उत्तम प्रकार के कुत्तों की नस्ल पैदा करवाई जाती थी। वर्तमान में रेस के लिए ग्रेहाउंड के नाम से जाना जाने वाला ब्रिटिश शिकारी कुत्तों को ही सब पहले पसंद करते हैं। कुत्ते ज्यादा से ज्यादा एक घंटे में 70 किलोमीटर का सफर तय करते हैं।
