कुत्तों के करतब कैसे-कैसे

लोकेंद्र बायस
भक्षण के लिए पशुओं का इस्तेमाल करने वाला आदि मानव ज्यों-ज्यों सभ्य होता गया, त्यों-त्यों उसने पशुओं से दोस्ती करना और उन्हें रक्षण तथा अन्य कार्यों के लिए उपयोग में लाने के लिए पालतू बनाना शुरू कर दिया। गाय, घोडा और श्वान पशु बिरादरी के वे सदस्य हैं, जो सबसे पहले पालतू बने और इनसानी बस्तियों में निवास के लिए लाए गए। घोडा सवारी के लिए, गाय दूध और गोबर के लिए तथा श्वान रक्षा, शिकार तथा जासूसी के लिए काम में लाया जाने लगा। दैत्यों से गायों को मुक्त कराया जासूस के रूप में श्वान की प्रतिभा का प्रसंग ऋग्वेद की कथा में सर्वप्रथम आया है। प्रसंग के अनुसार, देवताओं के गुरू बृहस्पति की गायों को दैत्यों ने चुराकर छुपा दिया। बृहस्पति ने जब यह शिकायत देवराज इंद्र से की, तब इंद्र ने अपनी पालतू कुतिया ‘सरमा’ को साथ लेकर गायों की खोज शुरू की। सरमा ने सूंघकर वह अड्डा खोज लिया, जहां दैत्यों ने गायों को छुपा रखा था। इंद्र ने आक्रमण किया तथा घमासान युद्ध के बाद दैत्यों को पराजित कर गायों को मुक्त कराया।

भारत में ही शुरू सबसे पहले श्वान-पालन यदि इतिहास के दर्पण को दूरबीन लगाकर देखा जाए तो यही पता लगेगा कि कुत्ते पालने की परंपरा भारत भूमि में ही शुरू हुई। शिकार के लिए काम आने वाले भारतीय श्वानों की अंतरराष्ट़ीय साख रही है। ग्रीक राजदूत मैगास्थनीज ने ईसा पूर्व चतुर्थ सदी का विवरण लिखते हुए भारतीय शिारी कुत्तों की नस्ल की बेहद प्रशंसा की है। मैगास्थनीज के अनुसार, ये कुत्ते जंगली सूअर, सांड तथा शेर को भी मार डालते थे। ग्रीक राजदूत ने लिखा है कि शिकारी कुत्तों की उम्दा नस्ल तैयार करने के लिए कुत्तियों को जंगल में नर बाघों के पास छोड दिया जाता था। नर बाघ और मादा कुतिया के मिलन से जो संतान पैदा होती थी, उसे शिकार के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। शिकारी कुत्तों की एकाग्रता, निष्ठा तथा लक्ष्यपूर्ति का संकल्प इतना पक्का होता था कि एक बार शिार को कब्जे में कर लेने पर वे उसे मारकर ही छोडते थे।
शिकारी कुत्तों के लिए मोटा बजट इसीलिए बेबीलाॅन, ईरान और ग्रीस में भारतीय शिकारी कुत्तों को पालने के लिए सम्राट की ओर से मोटा सालाना बजट रखा जाता था। सिकंदर के भारत आगमन पर गांधार देश के राजा ने उसे 150 शिकारी कुत्ते उपहार स्वरूप दिए थे। भारतीय राज्यों एवं रियासतों में कुत्ता पालने वाली जातियों को राज्याश्रय मिलता था। पौराणिक प्रसंगों में भी उस मातारी श्वान का उल्लेख मिलता है जो स्वर्ग से अग्नि चुराकर मानवों में लाई थी।

भैरव का वाहन, दत्तात्रेय का कृपापात्र, पांडवों का स्वर्गारोहण का साथी श्वान ही था।
अयुद्ध में होती थी कुत्ता पलटन स्पार्टा, बेबीलाॅन आदि देशों में लडाकू कुत्तों की टुकडियां बनाई जाती थीं। इन कुत्ता पलटनों को युद्ध के निर्णायक क्षणों में इस्तेमाल किया जाता था। जूलियस सीजर से लेकर नेपोलियन तक की सेनाओं में कुत्ता रेजीमेंट थी। आधुनिक युग में जर्मनी ने युद्ध के लिए कुत्तों का योजनाबद्ध इस्तेमाल करना शुरू किया। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में फौजी कुत्तों की पलटन में शामिल श्वान सैनिकों के प्रशिक्षण के लिए केंद्र बनाए गए। ब्रिटिश फौजों में कुत्तों का इस्तेमाल किया जाता था। इसके लिए 1917 में ब्रिटेन में एक प्रशिक्षण केंद्र खोला गया। बारूदी सुरंगों का पता लगाने के लिए भी कुत्तों से सेना में मदद ली जाती रही। ‘एयरेडेल’ बने जर्मन पुलिस के चहेते प्रथम विश्वयुद्ध के समय जर्मन सेना के पास 15 हजार प्रशिक्षित अल्सेशियन फौजी कुत्ते थे। इन फौजी कुत्तों का मुख्य काम संदेशों को आदान-प्रदान एवं घायलों का पता लगाना था। द्वितीय युद्ध के समय तक कुत्तों की 32 नस्लों को सैनिक इस्तेमाल के लिए सूचीबद्ध किया गया था। अपराधियों की धरपकड और पीछा करने के लिए कुत्तों का उपयोग पुलिस में भी शुरू किया गया। सर्वप्रथम जर्मनी में ‘एयरडेल’ नामक नस्ल के कुत्ते पुलिस विभाग के चहेते बने। आजकल अल्सेशियन के अतिरिक्त ‘डाॅबरमेन’ ‘पिंश्चर’ तथा ‘लेब्राडोर’ भी कुछ देशों में पुलिस कुत्तों के रूप में उपयोग में लाए जाते हैं।

भारत में पहली स्क्वाड स्वाधीन भारत के पुलिस विभाग में कुत्तों की पहली स्क्वाड 1951 में मद्रास में बनाई गई। इसके बाद धीरे-धीरे प्रत्येक राज्य में पुलिस विभाग पुलिस विभाग में श्वान दस्ते बनाए गए। भारतीय पुलिस विभाग में विदेशी नस्ल के अल्सेशियन, डाबरमेन, पिंश्चर, लेब्राडोर आदि कुत्ते तो हैं ही, साथ ही मुछोल, बंजारा, राजपलायम तथा तिब्बती जैसी भारतीय प्रजातियों के श्वान भी हैं। आजकल कुत्तों का उपयोग हवाई अड्डो पर मादक पदार्थों की पडताल के लिए विश्व के लगभग सभी देशों में किया जा रहा है। भारत में इस काम के लिए कुत्तों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाने लगा है। पुणे का कुत्ता प्रशिक्षण केंद्र इस दायित्व को कुशलता के साथ पूरा कर रहा है।

विलक्षण घ्राणेंद्रिय शक्ति पुलिस में कुत्तों की उपयोगिता उनकी सूक्ष्म एवं विलक्षण घ्राण शक्ति (सूंघने की क्षमता) के कारण है। एक प्रशिक्षित कुत्ते की सूंघने की इतनी क्षमता होती है कि यदि एक चम्मच में एक बार नमक भर के उस चम्मच को चार सौ बार पानी में डालकर साफ कर दिया तो भी वह सैकडों चम्मच में से नमक वाली चम्मच को खोज सकता है। सच तो यह है कि कुत्तों की दुनिया ही गंध की दुनिया है। उसके सूंघने की शक्ति मनुष्य से 6 हजार गुना अधिक होती है।
सामान्य परिस्थितियों में मनुष्य जिस राह से गुजरता है, वहां उसकी गंध 72 घंटों तक मौजूद रहती है। हरे-भरे रास्तों पर गंध ज्यादा देर तक टिकती है तथा चलती राहों में जल्दी मिट जाती है। इस गंध को भी मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है, पहली तो वह गंध, जो हवा में समाई रहती है तथा दूसरी वह जो मिट्टी में मिलती रहती है। मनुष्य के शरीर की गंध को भी सात भागों में बांटा गया है। व्यापक रूप से प्रशिक्षित पुलिस कुत्तों के पास इन सात किस्म की गंधों में से 22 करोड सूक्ष्म अंतर पहचानने की क्षमता होती है।
कुत्तों की इस विलक्षण घ्राण क्षमता, वफादारी, सहायता करने की प्रवृत्ति तथा घरेलू स्वभाव के कारण आधुनिक विश्व में उनसे कई नए काम लिए जाना भी शुरू किया है। अमेरिका में तो विशिष्ट नस्ल के कुत्तों को भूगर्भ में छिपे गंधक, तांबे, जस्ते आदि खनिज पदार्थों के भंडार का पता लगाने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है।

उपयोगिता के अतिरिक्त सिर्फ शौक की खातिर कुत्तों को पालना मनुष्यों की पुरानी आदत है। बिल्लियों से भी छोटे आकार की नस्ल वाले मासूम कुत्तों से लेकर विशाल गधे के आकार के कुत्तों को दुनिया भर में गरीब-अमीर सभी तबके के लोग पालते हैं। इनके रख-रखाव पर सैकडों से लेकर लाखों रुपए प्रतिमाह खर्च किए जाते हैं। शौकीन रईसों के पालतू कुत्तों के लिए पश्चिमी देशों में विशेष रूप से होटलों एवं स्वल्पागृहों का निर्माण भी किया गया है। यह शौक कभी-कभी सनक की शक्ल भी अख्तियार कर लेता है। चीन में जब चिंग वंश का शासन था तब पेकिनीज नस्ल के कुत्तों को शाही ठाठ से पाला जाता था। पिल्लों को कुतिया का दूध पिलाने के स्थान पर धाय (नवप्रसूता महिला दाई) का दूध पिलाया जाता था। इन कुत्तों की देखभाल के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित हिजडों को नियुक्त किया जाता था। जापान में स़त्रहवीं सदी में राज्य करने वाले सम्राट शोगन तोन्योशी ने एक लाख कुत्ते पाल रखे थे। इन कुत्तों के रख-रखाव के भारी खर्च के कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था गडबडा गई थी। इन अपवादों को छोडकर यदि तर्क की तुला और विवेक की कसौटी पर पालतू पशुओं का परीक्षण किया जाए तो श्वान हर दृष्टि से ‘खरा’ साबित होगा।
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